बाग नहीं, पेड़
नहीं- ना ही वो अमराई,
ना वो वानर-सेना - ना
ही कोयल आई.
हर सुबह आ जाती थी, इठलाती-बलखाती,
जाने किस गाँव गयी, अस्त-मस्त
पुरवाई.
बौर-नहीं, आम
नहीं, छना-फटा घाम नहीं,
ताशों की गड्डी अब, जाती
ना लहराई.
शिव-फल क्या चखेंगे, कट-फल
तक दीखे ना,
जामुन की खोज में
गिलहरी भी ना आई.
तोते किसी और ठौर, मारते
ही होंगे चोंच,
कच्चे अमरुद की तो, चटनी
भी ना खाई.
बदल गए गाँव-खेत, सूख
गयी पोखरी,
कोई चुरिहारिन गाँव-
झाँकने को ना आई.
छूट गयी छाछ, लिए
कोला हम बैठे हैं,
टाईप किये जाते हैं, सूख
गयी रोशनाई.
'क्या
थे वो दिन' से बढ़के- एक चीज़ और थी,
बुड़बक मुझे कहती थी, टीस
नहीं जा पाई.
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