हे ईश्वर,
क्या लिखी है
तुमने कभी,
कोई कविता?
क्या उलीचा है
बाहर,
तलहटी में
धंसता जाता,
दो कौड़ी का
अपमान,
कि उगला है-
अपने भोगे
यथार्थ को,
जो था सपने से
भी दूर,
तुम्हारे,
अथवा,
क्या बांटी है,
दूसरों से,
अपनी कल्पना,
जिसमे न हो कोई
पैबंद,
लिथड़ा-चिथड़ा,
बस वही हो सब
कुछ,
लाल, गुलाबी,
पीला और हरा,
जो हो ही नहीं
सकता सच,
तुम्हारे जैसे
ईश्वर के होते,
जो कविता तक,
नहीं लिख सकता.