छोट रहले बबुआ- त छोटे रहल सपनाऽ,
कि पटरी लिहले सुग्गा-
मदरसा मे जाला.
डागदर, इंजीनियर होखे पढ़ि-लिखि बबुआ,
बापे कवनो बूझि मनवा कतना
खखुआला.
ऑंखि के अँजोर महतारी के
जो रहले ऊ,
हमरा खातिर अइसे- जइसे
तुलसीजी के माला.
बारी-बगइचा, फेंड़ा-फेंड़ा घूमि-घूमि तूरनी,
कोनवासी आम लइका त सवाद ले
के खाला.
इसकूल तक पढ़ाई मे कुल्ही
दुख उठवनी,
तब ले- ना जानत रहनी गोड़
मे के छाला.
फेरू बबुआ बतवले ‘पूरा भईल
ना पढ़ाई हो’,
एह से आगे पढ़े लोग बनारस तक
जाला.
आधा खेत बेचनी, आ कवनो तरह कईनी,
नाम लिखववले कादो? बी. एच. यू. कहाला.
भरि-भरि खाँची के हम रूपया
लुटवनी,
आ करेनी हिसाब तब ना अभी
ले गिनाला.
बड़ा धोखा भईल, हम का जानत रहनी कि,
विद्या-दान लिहला में कुल्ही चीज बिकाला.
एमे. ओमे. पढ़िके बाबू कतना
ज्ञानी भईले रामा,
का कहीं बतावे मे कतना मन
लजाला.
खेत देखि पूछले- “किस चीज
का दरख्त है?”
कहनी “ई दरख्त ना ह. बूंट
ना चिन्हाला?”
घरे दू साल रहले, आ
परोरा-भिन्डी खईले,
ना कवनो बेरा बीतल, दाले घीव ना डलाला.
इजति अपना बेटा से
महतारी-बाप छिपवले,
ऊ ना जाने पवले रोजे- सतुआ
सनाला.
एक दिन उ कहले- ‘नोकरी
लागि जाईजी,
आ ऊपर से कमाई भी बाटे ओमें
गाला.’
आ धीरे से बतवले- ‘साटिफिटिक
मोरि के,
दस हजार रूपया घूस में
दियाला.
घूस द- त नोकरी ल, ना त माथे टोकरी ल,
बड़े-बड़े साटिफिटिक बक्सा
मे तँवाला.
सोचनी बिना घूस दिहले, मिली नाहीं नोकरी,
बेचीं खेत पुरनिया के- हम
त गईनी खाला?
जब बाकी खेत बेचनी, त बूढ़ी तेढ़ूअईली,
त कहनी- ‘मेहरारू लोग के
कुछू ना बुझाला.’
नोकरी-बियाह दूनों एके साल
मे हो गईल,
हमरा लागल- खुलि गईल
किस्मत के ताला.
दुलहिन घरे छोड़ि बाबू-
गईले अपना नोकरी पर,
आ साल भरि ना जनले- कईसे
चूल्हा फूंकाला.
इहाँ छोड़सु पतोहि जरते-
कबहूं तरकारी-दालि,
कबो ताना मारसु- “एगो नोकर
ना रखाला!”
हम बड़ा समझवनी त बूढ़ी बात
बूझली,
कि चुपे अदमी रहेला- त
झोंटा ना पेराला.
हावा आ बतास अइसन घरे अईले
बबुआ,
कहले- ‘दिल्ली फेमिली बिना
क्वाटर ना दियाला.’
दुलहिन, घीव, अँचार, चिऊरा लेले- बबुआ गईले,
सोचनि- केहू आवेला त दूइयो
दिन सुस्ताला.
घर से कवनो नाता नईखे- ई
कईसे कही दीं?
महतारी-बाप बिना उनसे कबो
ना रहाला.
पहिले बेटा-मुंडन में, फिर
साला के बियाह में,
आ बेटा के जनेव में- कम त ना
गिनाला.
जबहीं बबुआ अईले, तब नाया रूप देखनी,
करे मे बखान हमार मन ना
अघाला.
जईसे रेंड़ी के फेंड़ पर, कनईला के झूला होखे-
आरे, झूलल त दूर- गोड़ धरते
पटकाला.
पहिला बेरि अइले त पता चलल
बेटा से भी,
अपना गोड़े खाड़ा होके- गोड़
ना लगाला.
सिगरेट बबुआ पियले- त सोझा
हम ना गईनी,
जानत रहनी बबुआ हमसे कतना
लजाला.
मिसिरजी के बेटा नईखे, ऊ रोवेले त हँसेनी,
दुःख त बाप के हजारों, तोह से एगो ना सहाला?
पुरूब जनम के करजा रहे-
जाए द, चुकता भईल,
मुअला पीछे जनि कहसु- ‘बाकी रखलसि साला.’
अब तेरह साल बीत गईल, कुल्ही दाँत टूटि गईल,
कवनो कूकूर ह- कि गाई ह? कुछ
ना चिन्हाला.
अदिमिए ऊ जनावर ह- कि बचपन
मे त बढ़ेला,
बुढ़ारी मे निहुरले
रोजे-रोज घटल जाला.
काँपत हाथ लिहले बूढ़ी, राते महुआ बीनेली,
हई कईसन माटी के- कि गोबरो
पथाला!
अरे हे गंगा मईया, कठवति मे आ जईतू,
हमरा से बुढ़ारी मे त, अब ना चलल जाला.
एने कागज छोट परता, सियाही भी त मधिम बा,
अब थोरहिं ढेर समझीं! एगो
अच्छर ना पराला.
छोट रहले बबुआ...
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