सोमवार, फ़रवरी 10, 2014

पेड़ और संतानें

पेड़,
देखता हूँ जब भी आते जाते,
रहते हो तने,
चौबन्द-चाक,
जानता हूँ,
रहते होओगे तने,
तब भी,
जब रहते होओगे ओझल,
मेरी और सबकी आँखों से,
है तो यह एक आदत ही,
रहना तने,
ठीक उसी तरह,
जैसे कि झुक जाना,
सदा के लिए-
मेरी तरह,
और सुनो पेड़,
तुम्हारी भी संताने हैं,
पर जानते नहीं तुम यह,
देख नहीं पाते जो तुम कुछ,
नहीं तो देखा होता,
कालीदास को तुमने,
जो देख नहीं रहा था,
देखते हुए भी,
मना भी किया होता उसे,
चलो,
पक्की हुई यह बात,
नहीं देख पाने की,
बेशक सुन पाते हो शायद,
परन्तु बात है देखने की,
और फिर,
महसूस करने की-
पातल की गहराइयों तक,
अरे वही- सबसे नीचे के तह तक की,
कि, संताने हैं तुम्हारी,


तुम्हारे आस-पास,
तुमसे दूर भी,
लेकिन क्या पास, क्या दूर?
जब जानते ही नहीं तुम,
महसूस ही नहीं कर पाते,
संतान-सुख तुम,
और दुःख भी,
किन्तु पेड़,
बताना तो-
खोईं तुमने किस जतन से,
आँखें अपनी?
नहीं बनती बात,
बस सुनने भर से,
मेरी छोडो,
खुश रहो,
खड़े रहो,
तने रहो,
शांति मिलती है,
अच्छा लगता है देख,
किसी का खड़े रहना,

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