बुधवार, जून 26, 2013

अपना घर ही अच्छा है!

रहना एक मेहमान बनकर,
तुम्हारे घर में,
रखना खयाल शऊर का,
उठते-बैठते,
खांसते और छींकते,
ओढ़े रखना,
एक लबादा,
(उसके भीतर ‘मै’ जो हूँ),
कितना मुश्किल है?
हर एक आती-जाती सांस में,
थामे रखना,
हाथ शराफत का,
जो फिसल कर बार-बार,
बाहर चली जा जाती है,
उस दरवाजे के,
जिसे मैंने उढ़का रखा है,
कहीं दिख न जाऊं,
मै- जो हूँ मेहमान,
हाथ से फिसली,
शराफत के बिना!
लेकिन मै नहीं हूँ,
वो- जो मै हूँ!  
...
इसीलिये कहते हैं-
अपना घर ही अच्छा है,
शराफत हो न हो!
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