शनिवार, दिसंबर 07, 2013

बेहतर है कुछ तरह के जानवर बनना..

उल्लू रहा,
दो सालों तक,

(ठीक चार बजे,
चंद्रमुखी से मिलने,
और कॉफ़ी पीने के बाद,
टहलते हुए,
खुजलाने से पहले,
बार-बार हथेलियाँ),

बना हूँ गधा,
अभी-अभी,


मेरे तर्क सुनने के बाद,
जीतेन्द्र के जाने से,
ठीक पहले,




और तय है परसों,
मिलना बॉस से,

उतना ही तय है,
बनना मेरा कुत्ता,   
बेहतर है,
कुछ तरह के इनसान बनने से,
बन जाना,
कुछ तरह के जानवर!

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शनिवार, नवंबर 23, 2013

विवश नहीं होती माँ !

जाते-आते,
दौड़ते-सुस्ताते,
बनीं पगडंडियाँ,
कुछ थके,
कुछ रुके,
कुछ लालसा,
कुछ उत्तेजना भरे,
कदमों की आहट से,

कहना कि- विवशता भरे,
होगा अपमान,
उस बूढ़ी माँ का,
जो जमीदार के हाथों,
उसके पैरों की बूट से कूटे,
घायल बेटे के इलाज के लिए,
जा रही है,
मनरेगा की दिहाड़ी से,
कुछ दाम कमाने,
चलते रहना,
बिना रुके,
बिना थके,
कुछ उत्तेजना से,
कुछ लालसा से,
उसी पगडंडी पर,
कैसे गाली दे सकता हूँ,
उस बूढ़ी को,
विवश कह कर,
क्या विवश होती है कभी,
माँ?

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शनिवार, नवंबर 02, 2013

पेड़, जब आदमी बनोगे तुम!

पेड़,
जब आदमी बनोगे तुम,
जड़ें सूख जाने के बाद,
छोड़ चुके होगे,
आक्सीजन तमाम,
और दे चुके होगे,
सबको क्षमा-दान,
सभी बच्चों, जवानों,
एक-दो बूढों को भी,
जिन्होंने मारे होंगे तुम्हे पत्थर,
लहराए होंगे डंडे,
मीठे और कुछ खट्टे फलों के लिए,
यहाँ तक उन्हें भी,
जिहोंने उतारा होगा गुस्सा,
या मन की भड़ास,
खामखा- बस यूं ही,
लेकिन हो गए होगे तुम तृप्त,
देख कर,
उनके खुशी भरे चेहरों को,
और भूल गए होगे,
दर्द अपना-चोट अपनी,
लेकिन पेड़,
हाँ तो जब तुम बनोगे आदमी,
नहीं भूल पाओगे,
दर्द अपना, चोट अपनी,
यहाँ तक कि,
फिर से पेड़ बन जाने के बाद भी.  
सीखा नहीं आदमी,
भूलना दर्द अपना,
चोट अपनी,
मर जाने के बाद भी!
बेमानी हुई न बात-
जीते जी की?
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शनिवार, अक्तूबर 12, 2013

पेड़, तुम कैसे हो?

पेड़,
तुम कैसे हो?
फल भी देते थे,
दिन भर- दिन में,
महीना पहले,
और रोते भी थे,
रात को,

रात को भी दे देते फल तुम,
कोई चाहता तो, 
किन्तु दिन में रोते नहीं थे,
बीस-तीस डालियों और,
दो-तीन सौ पत्तियों के जरिये,
हालाँकि फल देते थे तुम,
दो-तीन सौ डालियों और,
अनगिनत टहनियों तक से,
फिर भी उतना नहीं रोते थे तुम,
जितना रो रही है,
बुधना की बेटी,
दो-तीन दिन से,
कहीं फंस गयी थी,
कुछ झाड़ियों, टहनियों और,
मोटी डालियों के बीच,
नहीं निकल पाई थी,
जब तक नहीं बदला था,
हिचकियों में-उसका रोना,
फिर चुप हो गयी थी,
जैसे बिन हवा के,
हो जाते हो तुम खड़े,
बिना हिलाए,
अपनी पात्तियां, टहनियां और डालियाँ,
उसकी भी हवा निकल गयी थी,
लेकिन वो तो खड़ी भी नहीं होती,
बुधना की बेटी...

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शुक्रवार, सितंबर 20, 2013

लिखी है कविता ?

हे ईश्वर,
क्या लिखी है तुमने कभी,
कोई कविता?
क्या उलीचा है बाहर,
तलहटी में धंसता जाता,
दो कौड़ी का अपमान,
कि उगला है-
अपने भोगे यथार्थ को,
जो था सपने से भी दूर,
तुम्हारे,
अथवा,
क्या बांटी है,
दूसरों से,
अपनी कल्पना,
जिसमे न हो कोई पैबंद,
लिथड़ा-चिथड़ा,
बस वही हो सब कुछ,
लाल, गुलाबी, पीला और हरा,
जो हो ही नहीं सकता सच,
तुम्हारे जैसे ईश्वर के होते,
जो कविता तक,
नहीं लिख सकता.

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सोमवार, अगस्त 19, 2013

मै आज फिर से आदमी

सारा राशन चूक गया,
करता क्या- लाचार था,
पारा सौ के पार था,
दो हफ्ते से बीमार था,
ऐसा पहले हुआ न कभी,
बाट देखते घर के सभी,
अस्पताल से घर आया,
घर से फिर बाहर आया,
साइकिल को पंचर  पाया,

मै आज फिर से आदमी.

बुधवार, जून 26, 2013

अपना घर ही अच्छा है!

रहना एक मेहमान बनकर,
तुम्हारे घर में,
रखना खयाल शऊर का,
उठते-बैठते,
खांसते और छींकते,
ओढ़े रखना,
एक लबादा,
(उसके भीतर ‘मै’ जो हूँ),
कितना मुश्किल है?
हर एक आती-जाती सांस में,
थामे रखना,
हाथ शराफत का,
जो फिसल कर बार-बार,
बाहर चली जा जाती है,
उस दरवाजे के,
जिसे मैंने उढ़का रखा है,
कहीं दिख न जाऊं,
मै- जो हूँ मेहमान,
हाथ से फिसली,
शराफत के बिना!
लेकिन मै नहीं हूँ,
वो- जो मै हूँ!  
...
इसीलिये कहते हैं-
अपना घर ही अच्छा है,
शराफत हो न हो!
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सोमवार, मई 27, 2013

आओ, मुझको प्यार कर दो!


हिल तो रही थीं दीवारें,
पर, पीठ लगाए बैठा था,
अब ज़मीन भी घूम रही है,
आओ- मुझको प्यार कर दो.
बार-बार दिल में आता है,
उछल के छू लूं नील गगन,
डरता हूँ, तुम रूठ न जाओ,
उठो, मुझे लाचार कर दो.
जी करता है, राग मचा दूं,
इस दुनिया को आग लगा दूं,
घमासान हो- इसके पहले,
बढ़ो- मुझे बेकार कर दो.
कितना अकेला, अधूरा हूँ मै,
तुम बिन कहाँ से पूरा हूँ मै,
क्या जानो कि क्या हो जी तुम?
चलो, ये घर- संसार कर दो.
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बुधवार, अप्रैल 24, 2013

घर जाऊं कि न जाऊं?

कुत्ते को पाला,
मैंने, बिल्ली को पाली,
बिल्ली के कटोरे से,
खाने लगा कुत्ता,
बिल्ली गुर्राने लगी,
कुत्ते से अच्छा,
सोचा- यही होना था,
आगे चली ये दुनिया,
कल कुत्ता अपने कटोरे पर,
बिल्ली वापस म्याऊँ,
बहुत डर लगता है,
घर जाऊं,
कि न जाऊं?
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रविवार, अप्रैल 07, 2013

बंद नहीं करूँगा दौडना-भागना


कई दिनों और महीनों से,
दौड़ रहा हूँ,
भाग रहा हूँ,
सच कहूँ तो कुछ सालों से,
अपने भीतर,
अंदर- बहुत अंदर,
जहाँ आती नहीं कोई रौशनी,
सुनायी देती नहीं कोई आवाज़,
सिवा खामोशी की चीख के,
गहराई दर गहराई,
जमी हुई है काई,
बुनी हुई है,
टूटे संबंधों की रस्सी,
लगी हुई है,
कहीं-कहीं गाँठ,
मेरे पहुँचने से पहले,
झूल जाती है,
और चली जाती है,
कुछ और आगे,
हाथ आयेगी कि नहीं?
फ़िलहाल दौड़ता तो जा रहा हूँ,
सोच लिया है-
रूकने से पहले,
बंद नहीं करूँगा,
दौड़ना-भागना!
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