शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

छूटता ही नहीं रूठना


छूटता ही नहीं,
अपना रूठना,
बात-बात पर,
गो छोड़ चुके हैं मनाना,
बहुत पहले से,
सभी दोस्त,
इकलौता बेटा,
और आधी जिंदगी.
मै रूठा बैठा,
सोच रहा हूँ,
सबने आखिर,
क्या सोचा होगा!
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रविवार, नवंबर 18, 2012

तुम नहीं आओगे...

तुम नहीं आओगे- ऐसा लगता है, मैं ही खबर दे दूं, दिल ये कहता है,
भंवरे तो उतनी गूँज करते नहीं, पर अब भी जूही यहाँ महकती है,

गोया भूले से इधर आया हो, या कि उसे खींच कोई लाया हो,
सूरज भी पहले जैसा लगता नहीं, दिखने में आग तो दहकती है.

इक जगह ना चैन से ठहरता है, चन्दा भी आता-जाता रहता है,
टिक गया 'नज़र' जो दो-चार घड़ी, चांदनी फिर जोर से लहकती है.


न कहा कुछ भी मैंने कोयल से, क्या है पगली को एक पागल से,
रात मानो काटी हो- मेरी ही तरह, देखते ही सुबह वो कुहकती है.


जैसे पसरा हुआ सा मातम हो, कोई गुजरा है बस- नया गम हो,
ना तो इठला के छुए फूलों को, अब न भूले- हवा बहकती है.
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शुक्रवार, नवंबर 16, 2012

एक राजा था!

एक राजा था,
ठीक से कहें तो-
एक रानी थी.

प्रजा कैसी थी,
इसका पता चलते ही,
लिख दी जायेगी,
एक कहानी.


हाँ,
जितना ज्यादा लंबा लगा वक्त,
उतनी छोटी होगी,
यह कहानी.

गुरुवार, नवंबर 01, 2012

ना ही बंद हुई खिड़की


नजारा-ए-महफ़िल, तुर्रा वैसी उनकी शिरकत,
न वाह मुंह से निकला, हाय- आह भी न निकली.

गुस्ल-ओ-वजू, नमाज़,  रोज़े भी किये हमने,
न ही खुशबू कम हुई, उनकी चाह भी न निकली.

हम पड़े थे राह में- कि कुछ रिवायतें होती हैं,
ये क्या-  न उठे पाँव, ढंकी बांह भी न निकली!

क्या इसे ही कहते हैं नज़र’- उम्मीद, इंतज़ार,
ना ही बंद हुई खिड़की, कोई राह भी न निकली.
***

पियू घर जाणा


कुछ ना सुहाए मोको, कुछ नईं भाणा,
माई री माई मोको, पियू घर जाणा.

एक तले पे, सौ फुलवारी, 
दूजे पर है, सेज हमारी,
तीजे पे चढ़ि मै सब सुख पाणा. माई...

चौथे तले पियू साज बजाए, 
जितना भी नाचूंमन ना अघाए,
कौन सुनाए
, मधुर अस गाणा. माई...

पंच पे छप्पन भोग बनाऊं
, 
पियू मॉगे, पर जी ललचाऊं,
छठवें चढ़ि के पियू को जिमाणा. माई...

सात तले पर
, आखिर बाजी, 
जो पियू भाए, सो मन राजी,
चाहूं पिया मोहे समझे न माणा. माई...
***

हारा, क्या हुआ?


कल साक़ी की आँखों से, इशारा क्या हुआ,
मत पूछिए महफ़िल में- नज़ारा क्या हुआ.

बुलाया किस-किस को साक़ी ने- उज्र क्यों,
आखिर में तो हमें ही पुकारा- क्या हुआ.

न दीवाना था- मै जाँ को हथेली पे ले गया,
सोचो तो- ऐसा इम्तेहां, दुबारा क्या हुआ?

तुम जीत लो जहां, दुनिया भी रख लो तुम,
क्या मिला नज़रको छोड़ो- वो हारा, क्या हुआ!
***

जरूरी नहीं रोने की वजह


बस रो रहा हूँ,
वजह ?
याद नहीं.
कोई कितना याद रखे भला!
हां,
भला से याद आया-
कितना भला था,
सन अस्सी का ज़माना.
न सरकार रूलाती थी,
न कोई दरकार नचाती थी,
दो वजहें तो याद आ ही गयीं न,
और हां,
सुमन भी दाल में ना-ना करते भी,
चार चम्मच घी डाल ही देती थी,
बंटू भी पैर की उंगलियां चटकाकर बजाये बिना,
रूठा-रूठा सा रहता था,
बाबूजी भी इतने खिसियाते नहीं थे,
बस कभी-कभी,
अपने पितृत्व पर  संदेह कर चुप हो जाते थे,
और-
इसी बाजार के लोग मुझे पकड़ते रहते,
मै छुड़ाता रहता था-
अरे भाई कुछ नहीं चाहिए.
आप भी तो मुझसे मिलने,
हफ्ते में दो बार आते ही थे.
तब न आपको पता था-
न मै ही जानता था,
अकेली उम्र ही बढ़ती है,
बाकी सब कुछ घटता जाता है,
अब आप ही बताएं,
रोने के लिए वजह जरूरी है क्या?
मेरा तो मानना है कि,
जरूरी बस रोना होता है,
कोई वज़ह नहीं.
     ***