रविवार, मार्च 31, 2013

पी.एच.डी. चोर


चोर-चोर का शोर हुआ तो, जो सोए थे जाग  लिए,
गश्त में चार सिपाही भी थे, चोर के पीछे भाग लिए.
एक सिपाही बहुत सयाना, फेंक के मारा अपना डंडा,
जब  दो टांगों के बीच लगा, गिरा भागता वह मुस्टंडा.
मुंह को देख सिपाही बोला- हो गया मुझको कैसा धोखा,
मास्टरजी! क्यों दौड़ रहे थे?  गलती से ही आप को रोका.
अरे आप तो टीचर शर्मा हैं, समझा था कोइ और,
अभी-अभी उस पतली गली से भागा है एक चोर.
बोला चोर  सिपाही से- सुनो मामला ऐसा है,
तुमसे गलती नहीं हुई है, चोरी मेरा पेशा है.

रात को इसमें  दो घंटे लगते हैं, सारा दिन बेकार हूं,
मास्टर बन कर समय बिताने को दिन में  लाचार हूं.
तीन महीने पहले बिका है, बीवी का गहना आख़िरी,
पी. एच. डी. हूं, उल्लू नहीं, गयी भाड़ में मास्टरी.
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यह शिक्षकों की वर्तमान दयनीय दशा पर ध्यान दिलाने 
के लिये लिखा गया है, हँसने के लिये नहीं.

शुक्रवार, मार्च 29, 2013

दोनों एक हैं!


दोनों एक हैं,
मैंने देखा है,
खुद अपनी आँखों,
आदमी और औरत को,
दोनों को,
जो झोंकते आये हैं,
धूल सबकी आँखों में,
देखे और पकड़े जाने पर,
खिलखिला कर कहते हैं-
भलाई है सबकी,
इसी झूठ में!.
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शुक्रवार, मार्च 22, 2013

आज भर!

साफ़-साफ़ देखा था मैंने,
आते ही अंदर कमरे में,
बैठी पास पलंग के ,
लाल-गुलाबी गठरी को,
झट से सरक कर बदल गयी थी,
घूंघट वाली नार में.
लगा था मुझको,
बीस के बदले,
भरी थीं उसने-
तीन ही साँसे.

फिर बढ़ते हाथों को देख,
जैसे कुछ अंदेशा हो,
बोल पड़ी थी-
पी... पी लीजिए दूध,

हैं?
दूध देने आई थी,
छोड़ दीजिए,
हमारी कसम,
...
आज भर!
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गुरुवार, मार्च 21, 2013

यादें बचपन की.


कभी हँसाएं, कभी रुलाएं, क्या-क्या रंग दिखाएं,
यादें बचपन की, ये यादें बचपन की.

सुबह सवेरे घर से निकलते, घर का रुख ना करते,
जब तक मम्मी ढूंढ ना लेती, कहाँ-कहाँ हम फिरते,
तीखी मीठी डांटे सुनते, मुँह में हँसी दबाए.
...यादें बचपन की.
जब तक पापा घोड़ा बनते, दूध ना तब तक पीते,
गुस्सा आता तो पापा की, मूंछ पकड़ के लटकते,
आती नींद तभी जब पापा, गोद में रख के सुलाएं.
... यादें बचपन की.
चोटी मेरी खींच के भैय्या, खूब मरम्मत करते,
फिर टॉफी दे कान पकड़ते, सौ-सौ नाक रगड़ते,
रानी बन हम खाते वही, जो अपने मन को भाए.
...यादें बचपन की.

साईकल पर जब बस्ता रखकर, हम स्कूल से चलते,
तुम उलझाते साईकल मेरी, सड़क पे दोनों गिरते,
बात न करते तुमसे हफ्तों, रहते नाक फुलाए.
... यादें बचपन की.

बुधवार, मार्च 20, 2013

तू ही बस मेरा न था!


ज़मीं तेरीहवा तेरीशफक तेरी, हया तेरी,
आसमां, सूरज, गुलिस्तां और क्या तेरा न था,
खुदी मेरी, बदी मेरी, कजा मेरी, सजा मेरी,
था इधर भी बहुत लेकिन, तू ही बस, मेरा न था.

धूप तेरी, छाँव तेरी, दरिया तेरी, नाव तेरी,
था तुझे सब कुछ मयस्सर, क्या भला तेरा न था,
जलन मेरी, चुभन मेरी, भंवर मेरा, घुटन मेरी,
थी बड़ी दौलत मेरी, पर- तू ही बस, मेरा न था. 
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शनिवार, मार्च 16, 2013

यही रहते थे आदमी कभी!


अब नहीं होती मौत,
शहर में,
किसी गीदड़ की,
डर नहीं लगता उसे,
आने से,
और भभकियां देने तक से,
उन सब को-
जो शहर में पाए जाते हैं, 
रहते हुए-
किसी से चिपके,
और कहीं दुबके.
कहा और सुना जाता है- 
यहीं रहते थे,
आदमी कभी!
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बुधवार, मार्च 13, 2013

कहाँ और क्यों है गड़बड़ ?



हो जाता है,
कितना अर्थहीन, तुच्छ और अप्रासंगिक,
खाया हुआ,
पिछले तीस सालों का, 
भोजन भरपेट,
या दोस्तों-मित्रों का साथ,
ऊंचे-नीचे, टेढ़े-सीधे रास्तों पर,
और वह हर एक पल, 
जो आया हमारी जिंदगी में,
एक खुशी नयी लेकर?
जब नहीं मिलता,
बस एक दिन,
खाने को,
या होते हैं व्यस्त मित्र, 
कभी अपनी उलझनों में, 
और सुन लेते हैं हम,
कोई बात मुसीबत की,
क्यों? क्यों?? क्यों??? 
कहाँ और क्यों है गड़बड़?
भोजन, मित्रों, खुशियों में,
या हमारा ही ...
ढीला है कोई पेंच? 
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