रविवार, अप्रैल 07, 2013

बंद नहीं करूँगा दौडना-भागना


कई दिनों और महीनों से,
दौड़ रहा हूँ,
भाग रहा हूँ,
सच कहूँ तो कुछ सालों से,
अपने भीतर,
अंदर- बहुत अंदर,
जहाँ आती नहीं कोई रौशनी,
सुनायी देती नहीं कोई आवाज़,
सिवा खामोशी की चीख के,
गहराई दर गहराई,
जमी हुई है काई,
बुनी हुई है,
टूटे संबंधों की रस्सी,
लगी हुई है,
कहीं-कहीं गाँठ,
मेरे पहुँचने से पहले,
झूल जाती है,
और चली जाती है,
कुछ और आगे,
हाथ आयेगी कि नहीं?
फ़िलहाल दौड़ता तो जा रहा हूँ,
सोच लिया है-
रूकने से पहले,
बंद नहीं करूँगा,
दौड़ना-भागना!
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