पेड़,
जब आदमी बनोगे
तुम,
जड़ें सूख जाने
के बाद,
छोड़ चुके
होगे,
आक्सीजन तमाम,
और दे चुके
होगे,
सबको
क्षमा-दान,
सभी बच्चों,
जवानों,
एक-दो बूढों
को भी,
जिन्होंने
मारे होंगे तुम्हे पत्थर,
लहराए होंगे
डंडे,
मीठे और कुछ
खट्टे फलों के लिए,
यहाँ तक उन्हें
भी,
जिहोंने उतारा
होगा गुस्सा,
या मन की
भड़ास,
खामखा- बस यूं
ही,
लेकिन हो गए
होगे तुम तृप्त,
देख कर,
उनके खुशी भरे
चेहरों को,
और भूल गए
होगे,
दर्द अपना-चोट
अपनी,
हाँ तो जब तुम
बनोगे आदमी,
नहीं भूल
पाओगे,
दर्द अपना,
चोट अपनी,
यहाँ तक कि,
फिर से पेड़ बन
जाने के बाद भी.
सीखा नहीं
आदमी,
भूलना दर्द
अपना,
चोट अपनी,
मर जाने के
बाद भी!
बेमानी हुई न
बात-
जीते जी की?
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