शुक्रवार, जनवरी 10, 2014

सुख बेटा के, दुःख बुढ़ारी के


छोट रहले बबुआ-  त छोटे रहल सपनाऽ,
कि पटरी लिहले सुग्गा- मदरसा मे जाला.
डागदर, इंजीनियर होखे पढ़ि-लिखि बबुआ,
बापे कवनो बूझि मनवा कतना खखुआला.

ऑंखि के अँजोर महतारी के जो रहले ऊ,  
हमरा खातिर अइसे- जइसे तुलसीजी के माला.
बारी-बगइचा, फेंड़ा-फेंड़ा घूमि-घूमि तूरनी,
कोनवासी आम लइका त सवाद ले के खाला.

इसकूल तक पढ़ाई मे कुल्ही दुख उठवनी,
तब ले- ना जानत रहनी गोड़ मे के छाला.
फेरू बबुआ बतवले ‘पूरा भईल ना पढ़ाई हो’,
एह से आगे पढ़े लोग बनारस तक जाला.

आधा खेत बेचनी, आ कवनो तरह कईनी,
नाम लिखववले कादो? बी. एच. यू. कहाला.
भरि-भरि खाँची के हम रूपया लुटवनी,
आ करेनी हिसाब तब ना अभी ले गिनाला.

बड़ा धोखा भईल, हम का जानत रहनी कि,
 विद्या-दान लिहला में कुल्ही चीज बिकाला.
एमे. ओमे. पढ़िके बाबू कतना ज्ञानी भईले रामा,
का कहीं बतावे मे कतना मन लजाला.

खेत देखि पूछले- “किस चीज का दरख्त है?
 कहनी “ई दरख्त ना ह.  बूंट ना चिन्हाला?
घरे दू साल रहले, आ परोरा-भिन्डी खईले,
ना कवनो बेरा बीतल, दाले घीव ना डलाला.

इजति अपना बेटा से महतारी-बाप छिपवले,
ऊ ना जाने पवले रोजे- सतुआ सनाला.
एक दिन उ कहले- ‘नोकरी लागि जाईजी,
आ ऊपर से कमाई भी बाटे ओमें गाला.’

आ धीरे से बतवले- ‘साटिफिटिक मोरि के,
दस हजार रूपया घूस में दियाला.
घूस द- त नोकरी ल, ना त माथे टोकरी ल,
बड़े-बड़े साटिफिटिक बक्सा मे तँवाला.

सोचनी बिना घूस दिहले, मिली नाहीं नोकरी,
बेचीं खेत पुरनिया के- हम त गईनी खाला?
जब बाकी खेत बेचनी, त बूढ़ी तेढ़ूअईली,
त कहनी- ‘मेहरारू लोग के कुछू ना बुझाला.’

नोकरी-बियाह दूनों एके साल मे हो गईल
हमरा लागल- खुलि गईल किस्मत के ताला.
दुलहिन घरे छोड़ि बाबू- गईले अपना नोकरी पर,
आ साल भरि ना जनले- कईसे चूल्हा फूंकाला.

इहाँ छोड़सु पतोहि जरते- कबहूं तरकारी-दालि,
कबो ताना मारसु- “एगो नोकर ना रखाला!”
हम बड़ा समझवनी त बूढ़ी बात बूझली,
कि चुपे अदमी रहेला- त झोंटा ना पेराला.

हावा आ बतास अइसन घरे अईले बबुआ,
कहले- ‘दिल्ली फेमिली बिना क्वाटर ना दियाला.’
दुलहिन, घीव, अँचार, चिऊरा लेले- बबुआ गईले,
सोचनि- केहू आवेला त दूइयो दिन सुस्ताला.

घर से कवनो नाता नईखे- ई कईसे कही दीं?
महतारी-बाप बिना उनसे कबो ना रहाला.
पहिले बेटा-मुंडन में, फिर साला के बियाह में,
आ बेटा के जनेव में- कम त ना गिनाला.

जबहीं बबुआ अईले, तब नाया रूप देखनी,
करे मे बखान हमार मन ना अघाला.
जईसे रेंड़ी के फेंड़ पर, कनईला के झूला होखे-
आरे, झूलल त दूर- गोड़ धरते पटकाला.

पहिला बेरि अइले त पता चलल बेटा से भी,
अपना गोड़े खाड़ा होके- गोड़ ना लगाला.
सिगरेट बबुआ पियले- त सोझा हम ना गईनी,
जानत रहनी बबुआ हमसे कतना लजाला.

मिसिरजी के बेटा नईखे, ऊ रोवेले त हँसेनी,
दुःख त बाप के हजारों, तोह से एगो ना सहाला?
पुरूब जनम के करजा रहे- जाए द, चुकता भईल,
मुअला पीछे जनि कहसु- ‘बाकी रखलसि साला.’

अब तेरह साल बीत गईल, कुल्ही दाँत टूटि गईल,
कवनो कूकूर ह- कि गाई ह?  कुछ ना चिन्हाला.
अदिमिए ऊ जनावर ह- कि बचपन मे त बढ़ेला,
बुढ़ारी मे निहुरले रोजे-रोज घटल जाला.

काँपत हाथ लिहले बूढ़ी, राते महुआ बीनेली,
हई कईसन माटी के- कि गोबरो पथाला!
अरे हे गंगा मईया, कठवति मे आ जईतू,
हमरा से बुढ़ारी मे त, अब ना चलल जाला.

एने कागज छोट परता, सियाही भी त मधिम बा,
अब थोरहिं ढेर समझीं! एगो अच्छर ना पराला.
                              छोट रहले बबुआ...

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