शनिवार, नवंबर 23, 2013

विवश नहीं होती माँ !

जाते-आते,
दौड़ते-सुस्ताते,
बनीं पगडंडियाँ,
कुछ थके,
कुछ रुके,
कुछ लालसा,
कुछ उत्तेजना भरे,
कदमों की आहट से,

कहना कि- विवशता भरे,
होगा अपमान,
उस बूढ़ी माँ का,
जो जमीदार के हाथों,
उसके पैरों की बूट से कूटे,
घायल बेटे के इलाज के लिए,
जा रही है,
मनरेगा की दिहाड़ी से,
कुछ दाम कमाने,
चलते रहना,
बिना रुके,
बिना थके,
कुछ उत्तेजना से,
कुछ लालसा से,
उसी पगडंडी पर,
कैसे गाली दे सकता हूँ,
उस बूढ़ी को,
विवश कह कर,
क्या विवश होती है कभी,
माँ?

---

शनिवार, नवंबर 02, 2013

पेड़, जब आदमी बनोगे तुम!

पेड़,
जब आदमी बनोगे तुम,
जड़ें सूख जाने के बाद,
छोड़ चुके होगे,
आक्सीजन तमाम,
और दे चुके होगे,
सबको क्षमा-दान,
सभी बच्चों, जवानों,
एक-दो बूढों को भी,
जिन्होंने मारे होंगे तुम्हे पत्थर,
लहराए होंगे डंडे,
मीठे और कुछ खट्टे फलों के लिए,
यहाँ तक उन्हें भी,
जिहोंने उतारा होगा गुस्सा,
या मन की भड़ास,
खामखा- बस यूं ही,
लेकिन हो गए होगे तुम तृप्त,
देख कर,
उनके खुशी भरे चेहरों को,
और भूल गए होगे,
दर्द अपना-चोट अपनी,
लेकिन पेड़,
हाँ तो जब तुम बनोगे आदमी,
नहीं भूल पाओगे,
दर्द अपना, चोट अपनी,
यहाँ तक कि,
फिर से पेड़ बन जाने के बाद भी.  
सीखा नहीं आदमी,
भूलना दर्द अपना,
चोट अपनी,
मर जाने के बाद भी!
बेमानी हुई न बात-
जीते जी की?
---