शनिवार, मार्च 24, 2012

हमरी कसम है मितवा

हाय- हमरी कसम है मितवा, सन्देस ना पठईहों,
बिछुआ की कसम हमको, तो से मिलन ना अईहों. हमरी..

कल थीं झुकी जो अँखियाँ, चोली भी मसकी कखियाँ,
सब बूझ गईं सखियाँ- बगिया की कहि न जईहों. हमरी...

अब पोतूं नहीं मैं कजरा- जूडा न बांधूं गजरा,
मेंहदी रचूंगी न ज़रा- नथ नाक ना लगईहों. हमरी...

जो तोसे मिलन ना आई- ना समझो जी पराई,
बस, बाली उमर दुहाई- तोहरी बलईयाँ लईहों. हमरी...

है बात बात दूई बरस की, मोह पे समझ- तरस की,
नईहर से मै जो टसकी, कुछ ना कसर उठईहों. हमरी...
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बुधवार, मार्च 21, 2012

देखा क्या बेकरां होना?


क़रहे देखे हैं, तो देखा क्या- बेकराँ होना,
किसने देखा है उन्हें, अपना भी मेहमाँ होना.

कबसे बैठे हैं सिर झुकाए हुए, मफफिल में,
कोई जा, उनसे कहे- हाल-ए-गरीबाँ होना.(1)

बात सुन कर, वो मुस्कुरा के चले जाते हैं,
याद रखते हैं मगर- थोड़ा सा हैराँ होना.(2)

बाद मुद्दत के मिले भी तो, सिर झुकाए हुए,
इससे बेहतर था वही, चाके-गिरेबाँ होना. (3)

उनके खत लौट के आते हैं हमीं को साहिब,
तुर्रा तो देखिए- ये रोज का किस्सा होना.(4)

आसमाँ आज तलक मुझसे खफा है ऐ नजर’,
उनका वो चाहे-ज़कन ओ मेरा सदक़ा होना.(5)

करहे= घाव/जख्म, बेकरां= गहराई, चाहे-जकन= ठुड्डी का गड्ढा
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इक जहाँ ऐसा भी हों


इक जहाँ ऐसा भी हो


अपने-अपने वास्ते हो, इक जहां ऐसा भी हो,
दुनिया हो सबकी जुदा, ना वास्ता कैसा भी हो.

जिसको जितना चाहिए, बस धूप उतनी ही मिले,
उतनी ही बारिश चले कि ‘चल बरस’ जितनी कहो.

जिसको दिल अपना कहे, आयद हो उसपे शर्त ये,
जिसका दिल तुम ले चुके हो, अब उसी दिल में रहो.

कुफ्र का न सवाल हो- खुशियों का मसला हो अगर,
सब छूट हो मस्ती की- जैसा जी करे, वैसे रहो.

हद हो कोई गम की भी, और- आह पे बंदिश ‘नज़र’,
मिक़दार अश्कों की भी हो- बस हुआ, अब ना बहो.
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शीशा चटक गया!


शीशा चटक गया!

बेदाग़ हुस्न देखना-   इतना खटक गया, 
चेहरा तुम्हारा देखके - शीशा  चटक गया.
उड़ते हुए बादल ने जो- निगाह ईधर की, 
जुल्फें तुम्हारी देखने, नीचे लटक गया.
छत पर से तेरा झांकना, कैसा हुआ गज़ब, 
वो इमाम जाते-जाते-  रस्ता भटक गया. 
दिखा रहा था, देखो- आफताब जो चमक, 
परदे में बादलों के- वो अभी सटक गया.
यह झील सी आंखे जो समन्दर ने देख लीं, 
दरिया को बेखुदी में वो-  हौले गटक गया.
भंवरा जो सो रहा था- आगोश में कली की, 
एक फूल देख के ‘नज़र’- फिर से मटक गया.

बैठे हों दिल के कोने में


                                        बैठे हो दिल के कोने में 

रोक लेता हूं,
छत तक जाती चीखें,
खींच लाता हूं –
पेड़ की फुनगी तक उठी आहें.
और, बाहर भी आ जाता हूं-
मीलों फ़ैली उदासी की चादर से.
पर,
तुम्हें छू नहीं सकता.
तुम बैठे हो,
कोने में-
दिल के!