क़रहे देखे हैं, तो देखा क्या- बेकराँ
होना,
किसने देखा है उन्हें, अपना भी मेहमाँ होना.
कबसे बैठे हैं सिर
झुकाए हुए, मफफिल में,
कोई जा, उनसे कहे- हाल-ए-गरीबाँ
होना.(1)
बात सुन कर, वो मुस्कुरा के चले जाते
हैं,
याद रखते हैं मगर- थोड़ा सा
हैराँ होना.(2)
बाद मुद्दत के मिले
भी तो, सिर झुकाए हुए,
इससे बेहतर था वही, चाके-गिरेबाँ होना. (3)
उनके खत लौट के आते
हैं हमीं को साहिब,
तुर्रा तो देखिए- ये
रोज का किस्सा होना.(4)
आसमाँ आज तलक मुझसे
खफा है ऐ ‘नजर’,
उनका वो चाहे-ज़कन ओ
मेरा सदक़ा होना.(5)
करहे= घाव/जख्म, बेकरां=
गहराई, चाहे-जकन= ठुड्डी का गड्ढा
***
अच्छी गजल
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