शनिवार, जुलाई 28, 2012
रविवार, जुलाई 15, 2012
नीम, आम और पीपल
एक नया अरमान लिए,
जाता था हर रोज,
(कभी-कभी दो-तीन बार भी),
उससे मिलने,
(कभी-कभी नहीं मिलती थी),
बहुत तेज चाल में भी,
दिख ही जाते थे,
तीन पेड़-
नीम, आम और पीपल के,
कई मौसम बदले,
देखता गया था मै,
बौर से लेकर आम तक,
नहीं लगे-टंगे कभी-
नीम या पीपल पर,
लेकिन हां,
जाता था जिससे मिलने मै-
वह अब यहीं है,
बैठी हुई खिड़की के पास,
उधेड़ रही है-
वही स्वेटर,
जो मिलने के उन दिनों,
मै अक्सर पहनता था.
वैसे-
कुछ कह नहीं सकता,
नीम और पीपल,
बौर या आम के बारे में.
कई मौसम बदले,
देखता गया था मै,
बौर से लेकर आम तक,
नहीं लगे-टंगे कभी-
नीम या पीपल पर,
लेकिन हां,
जाता था जिससे मिलने मै-
वह अब यहीं है,
बैठी हुई खिड़की के पास,
उधेड़ रही है-
वही स्वेटर,
जो मिलने के उन दिनों,
मै अक्सर पहनता था.
वैसे-
कुछ कह नहीं सकता,
नीम और पीपल,
बौर या आम के बारे में.
...
(पिताजी की डायरी से उतारी है, मैंने नहीं लिखी).
(पिताजी की डायरी से उतारी है, मैंने नहीं लिखी).
***
शनिवार, जुलाई 14, 2012
शनिवार, जुलाई 07, 2012
तमाशा उनका है, तमाश-बीन भी वही!
हालात पे रोना है
यूं- तो कीजिये भी क्या,
जानी ना कद्र, तुर्रा ये- शौक़ीन भी
वही.
हैरान होके लीजिए न, नाम
खुदा का,
जो एक है, सो
दूसरा- और तीन भी वही.
सरकार दर्द जानती, सरकार
देखती,
पर माजरा अजीब है कि, दीन
भी वही.
हट जाइए, सो
जाइए, कि भूल जाइए,
जिसकी नज़र में
किस्सा- ग़मगीन भी वही.
नुक्ताचीनी किस पे, किस
बात पे ‘नज़र’
ये तमाशा उनका है, तमाश-बीन
भी वही.
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रविवार, जून 10, 2012
टीस नहीं जा पाई
बाग नहीं, पेड़
नहीं- ना ही वो अमराई,
ना वो वानर-सेना - ना
ही कोयल आई.
हर सुबह आ जाती थी, इठलाती-बलखाती,
जाने किस गाँव गयी, अस्त-मस्त
पुरवाई.
बौर-नहीं, आम
नहीं, छना-फटा घाम नहीं,
ताशों की गड्डी अब, जाती
ना लहराई.
शिव-फल क्या चखेंगे, कट-फल
तक दीखे ना,
जामुन की खोज में
गिलहरी भी ना आई.
तोते किसी और ठौर, मारते
ही होंगे चोंच,
कच्चे अमरुद की तो, चटनी
भी ना खाई.
बदल गए गाँव-खेत, सूख
गयी पोखरी,
कोई चुरिहारिन गाँव-
झाँकने को ना आई.
छूट गयी छाछ, लिए
कोला हम बैठे हैं,
टाईप किये जाते हैं, सूख
गयी रोशनाई.
'क्या
थे वो दिन' से बढ़के- एक चीज़ और थी,
बुड़बक मुझे कहती थी, टीस
नहीं जा पाई.
***
गुरुवार, मई 10, 2012
ख़म थे जुल्फों में
गोया, बारिश- ओ- हवाओं का इक बहाना था,
ख़म
थे जुल्फों मे कि, इस
दिल को उलझ जाना था.
पड़तीं
बारिश की वो बून्दें, उनके
गरमाए बदन पे,
जैसे
पानी को खुद- प्यासे पे चले आना था.
क्या
पता थी क्या जगह, कैसे कहें कि क्या हुआ,
दोनों
हम ख़ुद भी कहाँ थे, ये
किसने जाना था.
मिलना
वो दो रूहों का- इतना तो आसां न था,
फासले
आगे थे और, पीछे ये जमाना था.
***
गुरुवार, अप्रैल 26, 2012
होगी मुश्किल न जो आसान
होगी मुश्किल ना जो
आसान, तो फिर क्या होगा,
कल तो था कल की तरह, आज भी धोखा होगा?
अपने हिस्से के गमों
को, न कभी बाँट सका मै,
क्या पता कितनों का
दिल- उसने यूं रखा होगा.
चोट लगती भी है तो, दर्द न यूं होता है,
उसकी ही रुह हूं मै, इतना तो वो समझा होगा.
फिर से बारिश, ये हवा, और मेरा तल्ख़ जिगर,
वो उधर हाँ, कि
नहीं- ना ही में उलझा होगा.
दुआ में हाथ उठा- फिर से गिरा
जाए ‘नज़र’,
उसकी खातिर तो ये, पहला
ही ना किस्सा होगा.
***
गुरुवार, अप्रैल 05, 2012
बताना तो...
बताना तो-
उधर कितनी देर तक चमेली महकती रहती है,
और,
क्या अब भी हवा वैसी ही शरारतें करती
है,
उड़ा देना तुम्हारी लटों को?
जानता हूं-
तुम नहीं भूलतीं,
उन्हें बार-बार सम्हालते रहना,
और...
इधर तो धूप ही नहीं निकलती,
बिचारी सुबह कुनमुनाती रहती है-
अपनी नाक फुलाए,
और,
बगल में दबाए,
दिन भर की लानतों की फेहरिश्त!
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शनिवार, मार्च 24, 2012
हमरी कसम है मितवा
हाय- हमरी कसम है
मितवा, सन्देस ना पठईहों,
बिछुआ की कसम हमको, तो
से मिलन ना अईहों. हमरी..
कल थीं झुकी जो
अँखियाँ,
चोली भी मसकी कखियाँ,
सब बूझ गईं सखियाँ-
बगिया की कहि न जईहों. हमरी...
अब पोतूं नहीं मैं
कजरा- जूडा न बांधूं गजरा,
मेंहदी रचूंगी न
ज़रा- नथ नाक ना लगईहों. हमरी...
जो तोसे मिलन ना आई-
ना समझो जी पराई,
बस, बाली
उमर दुहाई- तोहरी बलईयाँ लईहों. हमरी...
है बात बात दूई बरस
की, मोह पे समझ- तरस की,
नईहर से मै जो टसकी, कुछ
ना कसर उठईहों. हमरी...
***
बुधवार, मार्च 21, 2012
देखा क्या बेकरां होना?
क़रहे देखे हैं, तो देखा क्या- बेकराँ
होना,
किसने देखा है उन्हें, अपना भी मेहमाँ होना.
कबसे बैठे हैं सिर
झुकाए हुए, मफफिल में,
कोई जा, उनसे कहे- हाल-ए-गरीबाँ
होना.(1)
बात सुन कर, वो मुस्कुरा के चले जाते
हैं,
याद रखते हैं मगर- थोड़ा सा
हैराँ होना.(2)
बाद मुद्दत के मिले
भी तो, सिर झुकाए हुए,
इससे बेहतर था वही, चाके-गिरेबाँ होना. (3)
उनके खत लौट के आते
हैं हमीं को साहिब,
तुर्रा तो देखिए- ये
रोज का किस्सा होना.(4)
आसमाँ आज तलक मुझसे
खफा है ऐ ‘नजर’,
उनका वो चाहे-ज़कन ओ
मेरा सदक़ा होना.(5)
करहे= घाव/जख्म, बेकरां=
गहराई, चाहे-जकन= ठुड्डी का गड्ढा
***
इक जहाँ ऐसा भी हों
इक जहाँ ऐसा भी हो
अपने-अपने वास्ते हो, इक जहां ऐसा भी हो,
दुनिया हो सबकी जुदा, ना वास्ता कैसा भी हो.
जिसको जितना चाहिए, बस धूप उतनी ही मिले,
उतनी ही बारिश चले कि ‘चल बरस’ जितनी कहो.
जिसको दिल अपना कहे, आयद हो उसपे शर्त ये,
जिसका दिल तुम ले चुके हो, अब उसी दिल में
रहो.
कुफ्र का न सवाल हो- खुशियों का मसला हो अगर,
सब छूट हो मस्ती की- जैसा जी करे, वैसे रहो.
हद हो कोई गम की भी, और- आह पे बंदिश ‘नज़र’,
मिक़दार अश्कों की भी हो- बस हुआ, अब ना बहो.
***
***
शीशा चटक गया!
शीशा चटक गया!
बेदाग़ हुस्न देखना- इतना खटक गया,
चेहरा
तुम्हारा देखके - शीशा चटक गया.
उड़ते हुए बादल ने जो- निगाह ईधर की,
जुल्फें
तुम्हारी देखने, नीचे लटक गया.
छत पर से तेरा झांकना, कैसा हुआ
गज़ब,
वो इमाम जाते-जाते- रस्ता भटक गया.
दिखा रहा था, देखो- आफताब जो चमक,
परदे में
बादलों के- वो अभी सटक गया.
यह झील सी आंखे जो समन्दर ने देख लीं,
दरिया को बेखुदी में वो- हौले गटक गया.
भंवरा जो सो रहा था- आगोश में कली
की,
एक फूल देख के ‘नज़र’- फिर से मटक गया.
बैठे हों दिल के कोने में
बैठे हो दिल के कोने में
रोक लेता हूं,
छत तक जाती चीखें,
खींच लाता हूं –
पेड़ की फुनगी तक उठी आहें.
और, बाहर भी आ जाता हूं-
मीलों फ़ैली उदासी की चादर से.
पर,
तुम्हें छू नहीं सकता.
तुम बैठे हो,
कोने में-
दिल के!
बुधवार, फ़रवरी 29, 2012
रात जा रही है...
रात जा रही है,
बुरा है-
कल का दिन आएगा.
और जुड़ जाएगा एक,
हमेशा की तरह ही,
जब तुम नहीं आये!
अच्छा भी है-
रात जायेगी और,
कल का दिन आएगा.
मै सजा लूंगा-
फिर से,
उम्मीदों की दूकान.
क्या करूं?
धंधे का उसूल है.
कोई आये न आये-
दूकान तो सजानी ही होती है,
हर रोज!
पूछ लो किसी से.
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