सोमवार, अगस्त 19, 2013
बुधवार, जून 26, 2013
अपना घर ही अच्छा है!
रहना एक मेहमान बनकर,
तुम्हारे घर में,
रखना खयाल शऊर का,
उठते-बैठते,
खांसते और छींकते,
ओढ़े रखना,
एक लबादा,
(उसके भीतर ‘मै’ जो हूँ),
कितना मुश्किल है?
हर एक आती-जाती सांस में,
थामे रखना,
हाथ शराफत का,
जो फिसल कर बार-बार,
बाहर चली जा जाती है,
उस दरवाजे के,
जिसे मैंने उढ़का रखा है,
कहीं दिख न जाऊं,
मै- जो हूँ मेहमान,
हाथ से फिसली,
शराफत के बिना!
लेकिन मै नहीं हूँ,
वो- जो मै हूँ!
...
इसीलिये कहते हैं-
अपना घर ही अच्छा है,
शराफत हो न हो!
---
सोमवार, मई 27, 2013
आओ, मुझको प्यार कर दो!
हिल तो रही थीं दीवारें,
पर, पीठ लगाए बैठा था,
अब ज़मीन भी घूम रही है,
आओ- मुझको प्यार कर दो.
बार-बार दिल में आता है,
उछल के छू लूं नील गगन,
डरता हूँ, तुम रूठ न जाओ,
उठो, मुझे लाचार कर दो.
जी करता है, राग मचा दूं,
इस दुनिया को आग लगा दूं,
घमासान हो- इसके पहले,
बढ़ो- मुझे बेकार कर दो.
कितना अकेला, अधूरा हूँ मै,
तुम बिन कहाँ से पूरा हूँ मै,
क्या जानो कि क्या हो जी तुम?
चलो, ये घर- संसार कर दो.
---
अब ज़मीन भी घूम रही है,
आओ- मुझको प्यार कर दो.
बार-बार दिल में आता है,
उछल के छू लूं नील गगन,
डरता हूँ, तुम रूठ न जाओ,
उठो, मुझे लाचार कर दो.
जी करता है, राग मचा दूं,
इस दुनिया को आग लगा दूं,
घमासान हो- इसके पहले,
बढ़ो- मुझे बेकार कर दो.
कितना अकेला, अधूरा हूँ मै,
तुम बिन कहाँ से पूरा हूँ मै,
क्या जानो कि क्या हो जी तुम?
चलो, ये घर- संसार कर दो.
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बुधवार, अप्रैल 24, 2013
रविवार, अप्रैल 07, 2013
बंद नहीं करूँगा दौडना-भागना
कई दिनों और महीनों से,
दौड़ रहा हूँ,
भाग रहा हूँ,
सच कहूँ तो कुछ सालों से,
अंदर- बहुत अंदर,
जहाँ आती नहीं कोई रौशनी,
सुनायी देती नहीं कोई आवाज़,
सिवा खामोशी की चीख के,
गहराई दर गहराई,
जमी हुई है काई,
बुनी हुई है,
टूटे संबंधों की रस्सी,
लगी हुई है,
कहीं-कहीं गाँठ,
मेरे पहुँचने से पहले,
झूल जाती है,
और चली जाती है,
कुछ और आगे,
हाथ आयेगी कि नहीं?
फ़िलहाल दौड़ता तो जा रहा हूँ,
सोच लिया है-
रूकने से पहले,
बंद नहीं करूँगा,
दौड़ना-भागना!
---
शुक्रवार, अप्रैल 05, 2013
रविवार, मार्च 31, 2013
पी.एच.डी. चोर
चोर-चोर का शोर हुआ तो, जो सोए थे जाग लिए,
गश्त में चार सिपाही भी थे, चोर के पीछे भाग लिए.
एक सिपाही बहुत सयाना, फेंक के मारा अपना डंडा,
जब दो टांगों के बीच लगा, गिरा भागता वह मुस्टंडा.
मुंह को देख सिपाही बोला- हो गया मुझको कैसा धोखा,
मास्टरजी! क्यों दौड़ रहे थे? गलती से ही आप को रोका.
अरे आप तो टीचर शर्मा हैं, समझा था कोइ और,
अभी-अभी उस पतली गली से भागा है एक चोर.
बोला चोर सिपाही
से- सुनो मामला ऐसा है,
रात को इसमें दो
घंटे लगते हैं, सारा दिन बेकार हूं,
मास्टर बन कर समय बिताने को दिन में लाचार हूं.
तीन महीने पहले बिका है, बीवी का गहना आख़िरी,
पी. एच. डी. हूं, उल्लू नहीं, गयी भाड़ में मास्टरी.
---
यह शिक्षकों की वर्तमान दयनीय दशा पर ध्यान दिलाने
के लिये लिखा गया है, हँसने के लिये नहीं.
शुक्रवार, मार्च 29, 2013
शुक्रवार, मार्च 22, 2013
आज भर!
साफ़-साफ़ देखा था मैंने,
आते ही अंदर कमरे में,
बैठी पास पलंग के ,
लाल-गुलाबी गठरी को,
झट से सरक कर बदल गयी थी,
लगा था मुझको,
बीस के बदले,
भरी थीं उसने-
तीन ही साँसे.
फिर बढ़ते हाथों को देख,
जैसे कुछ अंदेशा हो,
बोल पड़ी थी-
पी... पी लीजिए दूध,
हैं?
दूध देने आई थी,
छोड़ दीजिए,
हमारी कसम,
...
आज भर!
---
गुरुवार, मार्च 21, 2013
यादें बचपन की.
कभी हँसाएं, कभी रुलाएं,
क्या-क्या रंग दिखाएं,
यादें बचपन की, ये यादें बचपन की.
सुबह सवेरे घर से निकलते, घर
का रुख ना करते,
जब तक मम्मी ढूंढ ना लेती, कहाँ-कहाँ
हम फिरते,
तीखी मीठी डांटे सुनते, मुँह
में हँसी दबाए.
...यादें बचपन की.
जब तक पापा घोड़ा बनते, दूध
ना तब तक पीते,
गुस्सा आता तो पापा की, मूंछ
पकड़ के लटकते,
आती नींद तभी जब पापा, गोद
में रख के सुलाएं.
... यादें बचपन की.
चोटी मेरी खींच के भैय्या, खूब
मरम्मत करते,
फिर टॉफी दे कान पकड़ते, सौ-सौ
नाक रगड़ते,
रानी बन हम खाते वही, जो
अपने मन को भाए.
...यादें बचपन की.
साईकल पर जब बस्ता रखकर, हम
स्कूल से चलते,
तुम उलझाते साईकल मेरी, सड़क
पे दोनों गिरते,
बात न करते तुमसे हफ्तों, रहते
नाक फुलाए.
... यादें बचपन की.
बुधवार, मार्च 20, 2013
तू ही बस मेरा न था!
ज़मीं तेरी, हवा
तेरी, शफक तेरी, हया तेरी,
आसमां, सूरज,
गुलिस्तां और क्या तेरा न था,
खुदी मेरी, बदी मेरी,
कजा मेरी, सजा मेरी,
था इधर भी बहुत लेकिन, तू ही बस, मेरा न था.
धूप तेरी, छाँव
तेरी, दरिया तेरी, नाव तेरी,
था तुझे सब कुछ मयस्सर, क्या भला तेरा न था,
जलन मेरी, चुभन
मेरी, भंवर मेरा, घुटन मेरी,
थी बड़ी दौलत मेरी, पर- तू ही बस, मेरा न था.
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शनिवार, मार्च 16, 2013
यही रहते थे आदमी कभी!
अब नहीं होती
मौत,
शहर में,
किसी गीदड़ की,
डर नहीं लगता उसे,
आने से,
और भभकियां देने तक से,
उन सब को-
जो शहर में पाए जाते हैं,
रहते हुए-
किसी से चिपके,
और कहीं दुबके.
कहा और सुना जाता है-
यहीं रहते थे,
आदमी कभी!
---
शहर में,
किसी गीदड़ की,
डर नहीं लगता उसे,
आने से,
और भभकियां देने तक से,
उन सब को-
जो शहर में पाए जाते हैं,
रहते हुए-
किसी से चिपके,
और कहीं दुबके.
कहा और सुना जाता है-
यहीं रहते थे,
आदमी कभी!
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बुधवार, मार्च 13, 2013
कहाँ और क्यों है गड़बड़ ?
हो जाता है,
कितना अर्थहीन, तुच्छ और अप्रासंगिक,
खाया हुआ,
पिछले तीस सालों का,
भोजन भरपेट,
या दोस्तों-मित्रों का साथ,
ऊंचे-नीचे, टेढ़े-सीधे रास्तों पर,
और वह हर एक पल,
जो आया हमारी जिंदगी में,
एक खुशी नयी लेकर?
जब नहीं मिलता,
बस एक दिन,
खाने को,
या होते हैं व्यस्त मित्र,
कभी अपनी उलझनों में,
और सुन लेते हैं हम,
कोई बात मुसीबत की,
क्यों? क्यों?? क्यों???
कहाँ और क्यों है गड़बड़?
भोजन, मित्रों, खुशियों में,
या हमारा ही ...
ढीला है कोई पेंच?
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कितना अर्थहीन, तुच्छ और अप्रासंगिक,
खाया हुआ,
पिछले तीस सालों का,
भोजन भरपेट,
या दोस्तों-मित्रों का साथ,
ऊंचे-नीचे, टेढ़े-सीधे रास्तों पर,
और वह हर एक पल,
जो आया हमारी जिंदगी में,
एक खुशी नयी लेकर?
जब नहीं मिलता,
बस एक दिन,
खाने को,
या होते हैं व्यस्त मित्र,
कभी अपनी उलझनों में,
और सुन लेते हैं हम,
कोई बात मुसीबत की,
क्यों? क्यों?? क्यों???
कहाँ और क्यों है गड़बड़?
भोजन, मित्रों, खुशियों में,
या हमारा ही ...
ढीला है कोई पेंच?
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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013
कांटे- गुलाब के साथ
कल कहा मैंने,
काँटों से,
क्या नहीं सोचते कुछ भी?
उग आते हो बेझिझक,
और रहते हो,
बेशर्मी से-
मखमली-नाजुक-खूबसूरत,
गुलाबों के साथ,
कहाँ वो,
तुम कहाँ?
पहले तन गया,
सुन कर और जरा,
फिर कहा कांटे ने-
अक्सर रोती है कली,
और कहती है मुझसे-
अभी यह हाल है मेरा,
तुम्हारे होते!
भैया कांटे,
अगर तुम न होते...
---
काँटों से,
क्या नहीं सोचते कुछ भी?
उग आते हो बेझिझक,
और रहते हो,
बेशर्मी से-
मखमली-नाजुक-खूबसूरत,
गुलाबों के साथ,
कहाँ वो,
तुम कहाँ?
पहले तन गया,
सुन कर और जरा,
फिर कहा कांटे ने-
अक्सर रोती है कली,
और कहती है मुझसे-
अभी यह हाल है मेरा,
तुम्हारे होते!
भैया कांटे,
अगर तुम न होते...
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शुक्रवार, जनवरी 18, 2013
बरसता नहीं पानी!
जब वो नहीं आते थे,
तो पानी बरसता था.
इक आग सी लगती थी,
बरसता क्यों है पानी!
आज वो आए हैं,
इक आग सी लगी है,
अब आग भी लगती है,
तो बरसता नहीं पानी!
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रविवार, जनवरी 13, 2013
लौट कर
पीता-पीता
पानी,
पढ़ते-पढ़ते अखबार,
और उतरता हुआ सीढियां,
मै गया था चला,
उन्हें समझाने,
और बताने.
लौटकर,
कोशिश में लगा हूँ-
उतरने की अखबार से,
पढ़ने की पानी को,
और पीने की,
सीढ़ियों को.
पढ़ते-पढ़ते अखबार,
और उतरता हुआ सीढियां,
मै गया था चला,
उन्हें समझाने,
और बताने.
लौटकर,
कोशिश में लगा हूँ-
उतरने की अखबार से,
पढ़ने की पानी को,
और पीने की,
सीढ़ियों को.
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गुरुवार, दिसंबर 27, 2012
वो दिन गए दिलवाली थी ये
वो दिन गए दिलवाली थी ये, अब ये बड़ा एन. सी. आर. देखो.
दो दिन की जिन्दगी है बाबू मेरे, तमाशे यहाँ के तो चार देखो.
जगमग है मीना-बाजार देखो, दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो.
बड़ी-बड़ी चीज़ों का नज़ारा करो, चढ़ कर के सारा संसार देखो.
कॅामन-वेल्थ और भागीदारी भी है- कपड़े-लत्ते तार-तार देखो,
फ्लाई-ओवर सुविधा की खातिर बने, सड़कों से उठती पुकार देखो.
पढ़ने की फीस बहुत भारी यहाँ-
इज्जत की जूतम-पैजार देखो,
धौला-कुआं वाला पकड़ा गया, तो- मेरठ का ताज़ा शिकार देखो.
गुनाहों पर पुलिस बहुत सख्त है, टी.वी. में बूटों की मार देखो,
शर्म कितनी कितनी ज्यादा है दैया मेरी- ठंढे पानी की बौछार देखो.
दिल्ली की ऐसी सरकार देखो, विज्ञापन भरे हैं- अखबार देखो,
कूड़े के ढेर पर तो सोते हैं वे- कहते हैं यू. पी. बिहार देखो.
मैडमों का राज है, ऐ मुनिया मेरी, बातें न करना बेकार देखो,
नारे थे वोट के लिए ही मेरी जान, दुश्मन है नारी की- नार देखो.
दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो...
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